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कर्मयोगी परम ब्रह्मा परमात्मा को शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है |

 कर्मयोगी परम ब्रह्मा परमात्मा को शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है |


कर्मयोगी परम ब्रह्मा परमात्मा को शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है |


सीताराम राधेकृष्ण आज हम अध्याय पाच के श्लोक नंबर छ से प्रारंभ करेंगे | तो श्री कृष्ण जी कहते हैं | हे अर्जुन कर्म योग के बिना सन्यास अर्थात मन इंद्रिया और शरीर द्वारा होने वाले संपूर्ण कर्मों का त्याग प्राप्त होना कठिन है |और भगवत स्वरूप को मनन करने वाला कर्मयोगी परम ब्रह्मा परमात्मा को शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है | जिसका मन अपने वश में है जो जितेंद्रिय एवं विशुद्ध अंतक वाला है और संपूर्ण प्राणियों का आत्म रूप परमात्मा ही जिसका आत्मा है ऐसे कर्मयोगी कर्म करता हुआ भी लिप्त नहीं होता है | 


सब इंद्रिया अपने अपने अर्थों में बरत रही है

तत्व को जानने वाला संख्या योगी तो देखता हुआ सुनता हुआ स्पर्श करता हुआ सूंघता हुआ भोजन करता हुआ गमन करता हुआ सोता हुआ श्वास लेता हुआ बोलता हुआ त्याग हुआ ग्रहण करता हुआ तथा आंखों को खोलता हुआ मता हुआ भी सब इंद्रिया अपने अपने अर्थों में बरत रही है इस प्रकार समझकर निसं है ऐसा माने कि मैं कुछ भी नहीं कर सकता जो पुरुष सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके और आसक्ति को त्याग कर्म करता है वह पुरुष जल से कमल के पत्ते की भाति पाप से लिप्त नहीं होता |

कर्म योगी के फल का त्याग करके भगवत प्राप्ति 

कर्म योगी ममत्व बुद्धि रहित केवल इंद्रिय मन में बुद्धि और शरीर द्वारा भी आसक्ति को त्याग कर अंतक की शुद्धि के लिए कर्म करते रहते हैं कर्म योगी के फल का त्याग करके भगवत प्राप्ति स्वरूप शांति को प्राप्त होता है और सकाम पुरुष कामना की प्रेरणा से फल मेंआसक्त होकर बांधता है अंतक जिसके वश में ऐसा संख्या योग काआचरण करने वाला पुरुष न करता हुआ और न करवाता हुआ ही नव द्वारों वाले शरीर रूप घरमें सब कर्मों को मन से त्याग कर आनंद पूर्वक सचिदा नंदन परमात्मा के स्वरूप में स्थित रहता है 

कर्म फल की संयोग की ही रचना करते हैं |

परमेश्वर मनुष्य को न तो कर्ता की ना कर्मों की और ना कर्म फल की संयोग की ही रचना करते हैं | किंतु स्वभाव ही बरत रहा है सर्वव्यापी परमेश्वर भी ना किसी के पाप कर्मों को और ना किसी के शुभ कर्मों को ही ग्रहण करता है | किंतु अज्ञान के द्वारा ज्ञान ढका हुआ है उसी से सब अज्ञानी मनुष्य मोहित हो रहे हैं | परंतु जिनका वह अज्ञान परमात्मा के तत्व ज्ञान को नष्ट कर दिया गया है उनका वह ज्ञान सूर्य के के सदृश्य उस सच्चिदानंदन परमात्मा को प्रकाशित कर देता है जिनका मन त्व दूप हो रहा है जिनकी बुद्धि हो रही है और सच्चिदानंदन परमात्मा में ही जिनकी निरंतर एक ही भाव से स्थिति है 


पुनरावृति को अर्थात परम गति को प्राप्त होते हैं

ऐसे तत् परण पुरुष ज्ञान के द्वारा पाप रहित होकर पुनरावृति को अर्थात परम गति को प्राप्त होते हैं | व ज्ञानी जन विद्या और विनय युक्त ब्रह्मांड में तथा गौ हाथी कुत्ते और चांडाल में भी समदर्शी ही होते हैं जिन के मन स्वभाव में स्थित होता है उनके द्वारा इस जीवित अवस्था में ही संपूर्ण संसार जीत लिया गया है | क्योंकि सच्चिदानंदन परमात्मा निर्दोष और सम है इससे वे सच्चिदानंदन परमात्मा ही स्थित जो पुरुष प्रिया को प्राप्त होकर हर्षित नहीं हो और अप्रिया को प्राप्त होकर उद्ग न हो वह स्थिर बुद्धि संशय रहित पुरुष सच्चिदानंदन परमब्रह्मा परमात्मा में एक ही भाव से नित्य स्थित है बाहर के विषयों में आसक्ति रहित अंत तक साधक आत्मा में स्थित जो ध्यान जनित सात्विक आनंद है उसको प्राप्त होता है |


जो पुरुष आत्मा में ही सुख वाला है 

वह सच्चिदानंदन परम ब्रह्मा परमात्मा के ध्यान रूप योग में अभिन्न भाव से पुरुष अक्षय आनंद को अनुभव करता है जो ये इंद्रिय तथा विषय के संयोग से उत्पन्न होने वाले सब भोग हैं यद्यपि विषय पुरुषों को सुख रूप भास हैं तो भी दुख के हेतु और आदि अंत वाले अर्थात अनीत इसलिए हे अर्जुन बुद्धिमान विवेकी पुरुष उनमें नहीं रास्ता है | जो साधक इस मनुष्य शरीर में शरीर का नाश होने से पहले ही काम क्रोध से उत्पन्न होने वाले को सहन करने में समर्थ हो जाता है वही पुरुष योगी है वही सुखी है जो पुरुष आत्मा में ही सुख वाला है आत्मा में ही रमण करने वाला है तथा जो आत्मा में ही ज्ञान वाला है वह सच्चिदानंदन परम ब्रह्मा परमात्मा के एक साथ एक ही भाव से प्राप्त संख्या योग शांत ब्रह्मा को प्राप्त होता है जिनके सब पाप नष्ट हो गए हैं जिनके सब संशय के द्वारा निर्वत हो गए हैं | 



 जिनका जीता हुआ मनुष्य निश्चल भाव से परमात्मा में स्थित है

जो संपूर्ण प्राणियों के हित में है | और जिनका जीता हुआ मनुष्य निश्चल भाव से परमात्मा में स्थित है वे ब्रह्मा वत पुरुष शांत ब्रह्मा को प्राप्त होते हैं काम क्रोध से रहित जीते हुए चित्त वाले परम ब्रह्मा परमात्मा का साक्षात्कार किए हुए ज्ञानी पुरुषों के लिए सबसे और शांत परम ब्रह्मा ही परिपूर्ण बाहर के विषय भोगों को चिंतन करता हुआ बाहर ही निकालकर और नेत्रों की दृष्टि को भृकुटी के बीच में स्थित करके तथा नासिका में विचारने वाला प्राण और आपन वायु को शम करके जिन जिसकी इंद्रिया मन और बुद्धि जीती हुई है ऐसा जो मोक्ष परायण मुनि इच्छा भय और क्रोध से रहित हो गया है | वह सदा मुक्त ही है | 

मेरा भक्त मुझे को सब यज्ञ और तपों का भोगने 

अध्याय छ का अंतिम श्लोक मेरा भक्त मुझे को सब यज्ञ और तपों का भोगने वाला संपूर्ण लोकों के ईश्वर को भी ईश्वर तथा संपूर्ण भूत प्राणियों का सुहृद अर्थात सर्वार्थ रहित दयालु और प्रेमी ऐसा तत्व से जानकर शांति को प्राप्त होता है | षष्टम अध्याय समाप्त |सीताराम राधे कृष्ण|



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