श्री कृष्ण जी कहते हैं कि हे अर्जुन हे पार्थ जय पराजय यह सब छोड़ दो.|
श्री कृष्ण जी कहते हैं कि हे अर्जुन हे पार्थ जय पराजय यह सब छोड़ दो
सीताराम राधे कृष्ण सभी श्रोता गणों आप सभी अच्छे होंगे .सब घर परिवार में सब सुख शांति से होंगे तो श्री कृष्ण जी कहते हैं जय पराजय लाभ हानि और सुख दुख को समान समझकर उसके बाद युद्ध के लिए तैयार हो जा इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को नहीं प्राप्त होगा श्री कृष्ण जी कहते हैं कि हे अर्जुन हे पार्थ जय पराजय यह सब छोड़ दो लाभ हानि यह सब छोड़ दो सुख दुख को समान समझकर सब समान समझना है यह सब एक तरफ कर दो कि जीत होगी या हार होगी सुख मिलेगा दुख मिलेगा लाभ मिलेगा या कुछ या युद्ध कुछ भी मिलेगा उसके बाद युद्ध के लिए तैयार हो जा मतलब उस सोच को निकाल दो कि मैं हार जाऊंगा निडरता को निकाल दो कि मैं हार जाऊंगा या मेरे को हानि होगी या कुछ भी होगा जब तक उस डर को नहीं निकालो उस डर को निकालकर युद्ध के लिए खड़े हो जा इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को नहीं प्राप्त होगा इस प्रकार यह सब कुछ अपना विकार निकाल दोगे कि लाभ होगा हानि होगा या कुछ भी होगा जो इस चीज को सोचता है कि जैसे कि अगर इस कार्य को मैं करूंगा क्योंकि वो तो धर्म का युद्ध है ना तो धर्म के युद्ध में लाभ हानि नहीं देखा जाता वह धर्म युद्ध है वह धर्म के लिए लड़ा जा रहा है
श्री कृष्ण जी कहते हैं कि हे पार्थ हे अर्जुन यह बुद्धि तेरे लिए ज्ञान योग्य है
तो उसमें यह नहीं देखा जाता है तो अगर आप यह सोचते हैं कि मैं कोई कार्य कर रहा हूं तो मैं इसमें हार जाऊंगा या इसमें मुझे हानि हो जाएगी तो निडरता हो जाती है तो इस प्रकार युद्ध करने से तुम पाप को प्राप्त नहीं होगे नर्क नहीं जाओगे स्वर्ग में ही जाओगे क्योंकि तुमने युद्ध अगर तुम हार भी जाते हो तो तुमने युद्ध धर्म के लिए किया है या तुम वीरगति को भी प्राप्त हो जाते हो तो तुम मृत्यु को भी प्राप्त हो जाते हो तो तुम युद्ध धर्म के लिए किया है श्लोक नंबर 39 श्री कृष्ण जी कहते हैं कि हे पार्थ हे अर्जुन यह बुद्धि तेरे लिए ज्ञान योग्य है ज्ञान विषय में कही गई है जो भी अभी तक यह बुद्धि तेरे लिए ज्ञान योग के विषय में कही गई है कि अभी तक जो भी है वह तुम्हारे ज्ञान के लिए कही गई है अब तू इसे अपना कर्म बना कर्म योग के लिए बुद्धि से युक्त हुआ तू कर्मों को बंधनों को भली भाति त्याग देगा जो अपने दिमाग से सोचते हैं बंधन जितने मोह में आ जाते हैं कि यह मेरे चाचा है मेरे ताव है अर्जुन जी ने भी यही सोचा था कि भीष्म पितामह जी मेरे दादा जी हैं वो गुरु के वो गुरु जी है कोई सगा संबंधी जी हैं तो जो बंधन था वह बुद्धि से ही आ रहा था व दिमाग से ही आ रहा था तो उसको सबको त्याग देगा अर्थात सर्वता सर्व सर्वथा नष्ट कर डालेगा मतलब यह सब बिल्कुल नष्ट कर डालेगा ठीक है
कृष्ण जी हे अर्जुन इस कर्म योग में आरंभ |
अध्याय नंबर दो श्लोक नंबर चार इस कर्म योग में आरंभ का अर्थात बीज का नाश नहीं है और उल्टा फल स्वरूप दोष भी नहीं है फल रूप दोष भी नहीं है बल्कि इस कर्म योग रूप धर्म का थोड़ा सा भी साधन जन्म मृत्यु रूप महान भय से रक्षा कर लेता है इसमें कहते हैं कृष्ण जी कि हे अर्जुन इस कर्म योग में आरंभ काअर्थात बीज का नाश नहीं है वंश का नाश नहीं है और उल्टा फल रूप दोष भी नहीं है इसका कोई फल का मतलब जैसे बोलते हैं ना कि मुझे दोष मिल जाएगा इसका क्या फल होगा क्या इसका दोष होगा बल्कि इस कर्म योग रूप में यह कर्म और धर्म कर्म योग रूप में धर्म का थोड़ा सा साधन जन्म और मृत्यु का महान भय से रक्षा कर लेगा मतलब जो तुम्हारी जन्म और मृत्यु का है जब तुम इस चीज को समझ जाओगे ना यह दोष है ना पाप है तो जन्म और मृत्यु रूप महान भय जो सबसे मृत्यु का सबसे ज्यादा जो भय होता है वह मृत्यु का होता है इंसान को मैंने वो बताया था ना पिछली बार के जीवन मरण का एक चक्र होता है जन्म मृत्यु का यह मृत्यु लोक है जो आया जो जन्मा है वह मरेगा भी और जो मरा है वह जमेगा भी वह चाहे किसी ना किसी तरीके से हो यह किराए का मकान है यह बात आप समझ लीजिए तो जो मृत्यु रूप महान भय से रक्षा कर लेता है कर्म योग रूप में अगर आप उसको अपना लोगे और धर्म से के धर्म युद्ध को लड़ो तो वह तुम्हारा जो मृत्यु का जो भय है मृत्यु रूप भय है वह उसको खत्म कर से रक्षा करता है तुम्हारी ठीक है अध्याय नंबर दो श्लोक नंबर 40 खत्म.|
श्री कृष्ण जी कहते हैं हे अर्जुन जो भोगों में तन्मय हो रहे हैं
अध्याय नंबर दो का श्लोक नंबर 41 तो श्री कृष्ण जी कहते हैं हे अर्जुन इस कर्म योग में निश्चित में का बुद्धि एक ही होती है किंतु अस्थिर विचार वाले विवेकहीन सकाम मनुष्यों की बुद्धि निश्चय ही बहुत भेदोंवा और अनंत होती है मतलब हे अर्जुन इस कर्म योग में जो आप कार्य कर रहे हो निश्चित है बुद्धि एक एक ही होती है बुद्धि एक ही होती है सोच इंसान की एक ही होती है किंतु अस्थिर विचार जो अस्थिर जो स्थिर मतलब एक जगह पर ना टिकने वाले विचार हो ना विचार विवेक ही जिनसे कोई लाभ ना हो सकाम मनुष्य की बुद्धि मनुष्य सकाम मनुष्यों की बुद्धि निश्चय ही बहुत भेदों वाली और अनंत होती है जो मनुष्य हैं की बुद्धि होती है निश्चय ही बहुत भेदों भेदों वाली और अनंत होती है मतलब उनका य यह है कि अस्थिर विचार एक दो नाव पर कभी भी सवारी नहीं की जा सकती जब तक आप किसी कोई एक चीज एक लक्ष्य को नहीं मान लेते हो हम कैसे भी कोई एक एम नहीं ले लेते हो कि अगर मैं पढ़ाई करूंगा तो मेरे को वह बनना है तो उसके लिए वह करना है तब तक तो उसमें यह बताया गया है कि तुम्हारी जो सोच है उस सोच के ऊपर निर्भर करता है कि तुम कैसे कर्म योग को धर्म युद्ध में अपने कर्म को धर्म के लिए यूज करोगे मतलब प्रयोग करोगे कैसे बताया गया श्लोक नंबर 42 श्री कृष्ण जी कहते हैं हे अर्जुन जो भोगों में तन्मय हो रहे हैं मतलब जो भोग विलास मतलब जो जिनको हर सुविधा मिल रही है पैसा है सब कुछ है पैसा है जैसे मैं ही हूं मान लीजिए मैं ही हूं मेरे पास किसी चीज की कोई कमी नहीं है मेरे पास सब कुछ है मुझे कुछ याद नहीं है बस सब मेरे पास है व भोग मिल रहा है भोगना मतलब वह होता है कि आप हर चीज भोग रहे हैं ठीक है सब कुछ मिल रहा है भोगों में तन्मय हो रहे हैं जो कर्म फल के प्रशंसक वेद वाक्यों में ही प्रीति रखते हैं कर्म फल जो व्यक्ति अपने कर्म के अनुसार फल के प्रशंसक मतलब अपने कर्म के अनुसार जो व्यक्ति अपने कर्म के अनुसार फल की इच्छा रखता है उसका प्रशंसक है
श्री कृष्ण जी कहते हैं कि हे अर्जुन जो सिर्फ स्वर्ग को ही सोचते हैं
वेद वाक्यों में ही प्रीति रखते हैं वेदों में ज्ञान में प्रीति मतलब इच्छा रखते हैं जिनकी बुद्धि में स्वर्ग ही परम वस्तु है जिनकी सोच में ही स्वर्ग सबसे ज्यादा परम प्रिय है औरजो स्वर्ग से बढ़कर दूसरी कोई और वस्तु समझते ही नहीं है मतलब जो स्वर्ग के अलावा किसी और चीज को समझते ही नहीं है उसके अलावा भी कुछ और चीज है यह आपको समझना पड़ेगा यह भी आगे मैं बताता हूं ऐसे कहने वाले हैं वे अविक अविक जन इसी प्रकार की जिस पुष्पित अर्थात दिखाऊ शोभा युक्त वाणी को कहा करते हैं जो पुष्पित अविक हीन कोई भी बातें जैसे अविवेकी जन कोई भी जिसमें विवेक ना हो वह व्यक्ति शोभा युक्त वाणी को कहा करते हैं जो कि जन्म रूप कर्म फल देने वाली है एवं भोग एवं ऐश्वर्य के लिए प्राप्ति के लिए नाना प्रकार की बहुत सी क्रियाओं को वर्णन करने वाली है उस वाणी द्वारा जिनका चित हर याया गया है जो भोग और ऐश्वर्य में अत्यंत आसक्त है उन पुरुषों की परमात्मा में निश्चित मता बुद्धि नहीं होती मतलब कहने का मतलब श्री कृष्ण जी कहते हैं कि हे अर्जुन जो सिर्फ स्वर्ग को ही सोचते हैं कि मुझे स्वर्ग पाना है उससे ऊपर भी कुछ है वो परमात्मा है वैकुंठ लोक है ब्रह्म है परम ब्र परम ब्रह्म है वह भी है परमात्मा में अपने आप को जो लीन कर लेता है वह स्वर्ग से भी ऊपर है तो श्री कृष्ण जी कहते हैं कि उन पुरुषों को परमात्मा में निश्चित बुद्धि अपनी सोच परमात्मा में नहीं रहती जो भोग विलास में रहते हैं वह कभी भी जो ऐश्वर्य अपने ठाट बांट मतलब ये कि हर सुविधा मिल रही है गाड़ी मिल रही है सब कुछ मिल रहा है तो वह फिर क्यों भगवान को याद करेगा क्यों करेगा नहीं करेगा तो यह चीज वह समझा रहे हैं
कृष्ण जी कहते हैं ब्राह्मण का समस्त वेदों में उतना ही प्रायोजन होता
कि स्वर्ग से जो स्वर्ग को पाना चाहते हैं परमात्मा को पाने के लिए परमात्मा में लीन होने के लिए आपको भक्ति करनी चाहिए श्लोक नंबर 45 हे अर्जुन वेद उपयुक्त प्रकार से तीनों गुणों के कार्य रूप में समस्त भोगों एवं उनके साधनों का प्रतिपादन करने वाले हैं इसलिए तू उन भोगों एवं उनके साधनों में अ शक्तिहीन हर्ष शोका द्वों से रहित नित्य वस्तु परमात्मा में स्थित योग के क्षेम को ना चाहने वाले और स्वाधीन अंतःकरण वाला हो मतलब के तू बिल्कुल भोग विलास परिवारवाद जितना भी है जो तुमने सोच में रखा है अपनी साधं को हर्ष शोक द्वंद युद्ध दुश्मनी किसी से भी यह सब चीज को एक साइड मतलब एक तरफ करके स्वाधीन स्वर्ण पर स्वाधीन हो जाए अंत करण वाला हो अंत करण वाला होक मतलब अपने कार्य को करने वाला होना चाहिए सब ओर से श्लोक नंबर 46 सब से परिपूर्ण जलाशय के प्राप्त हो जाने पर छोटे जलाशय में मनुष्य को जितना प्रायोजन रहताहै ब्रह्मा को तत्व से जानने वाले ब्राह्मण का समस्त वेदों में उतना ही प्रायोजन रह जाता है देखो कितनी अच्छी बात क है शी कृष्ण जी कहते हैं सब ओ से परिपूर्ण जलाशय के प्राप्त हो जाने पर मतलब सब ओर से चारों तरफ से जल प्राप्त हो जाने पर भी छोटे जलाशय में मनुष्य का जितना प्रायोजन रहता है मतलब समुद्र को छोड़कर छोटे जलाशय में सोच रखते हैं ब्रह्मा को तत्व से जानने वाले ब्रह्मा को तत्व से जानने वाले ब्राह्मण का समस्त वेदों में उतना ही प्रायोजन होता हैकि ब्राह्मण को भी ब्रह्मा को तत्व समझने तत्व से जानने वाले तत्व से जानने वाले ब्राह्मण का समस्त वेदों में भी उतना ही प्रायोजन रह जाता है प्रायोजन मतलब आप प्रायोजन का क्या मतलब समझ सकते कि जैसे प्रायोजन हम किसी चीज का प्रायोजन कर रहे हैं अपनी समझदारी सारा मतलब सारे सब कुछ सोच के दिमाग के ऊपर आ जाता है
श्री कृष्ण जी प्रभु कह रहे है
तेरे कर्म करने में ही अधिकार है तू कार्य कर तेरे कर्म करने में ही अधिकार है उसके फलों में कभी नहीं फल की इच्छा में नहीं फल की इच्छा मत कर भगवान भी देखो यही कहते हैं कि बेटा तू सिर्फ अपने कर्म कर फल की इच्छा मत कर फल देना सिर्फ परमात्मा का काम है वह तुम्हारे कर्मों केअनुसार तुमको फल दिया जाएगा इसलिए तू कर्मों के फल का हेतु मत हो इसलिए तू अपने कर्मों के फल का के गलत कर्म कर रहे हो या सही कर्म कर रहे हो तुमको क्या फल मिलेगा लाभ मिलेगा स्वर्ग मिलेगा हा या नर्क मिलेगा उसका हित तु मत हो मतलब उसको मत सोचो उसके मत चक्कर में मत पड़ो आप तथा तेरे कर्म न करने में भी आसक्ति ना हो तेरे कर्म करने में भी आसक्ति ना हो शक्ति होनी चाहिए अ शक्ति नहीं कमजोर नहीं पड़ना चाहिए अपने कर्म में श्लोक नंबर 48 तब अब इसमें धृतराष्ट्र जी का वर्णन आता है बट वो बाद में करेंगे श्लोक नंबर 48 सुनिए तब वह बोलते हैं कि हे धनंजय यह अर्जुन का नाम है हे धनंजय तू अशक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असि में समान बुद्धि वाला होकर योग में स्थित हुआ कर्तव्य कर्मों को कर समत्व ही योग कहलाता है मतलब श्री कृष्ण जी प्रभु कह रहे हैं कि हे धनंजय तू अक्ति को त्याग दे निर्बलता को त्याग दे त्याग कर सिद्धि सिद्धि असि सब समान बुद्धि वाला होकर बिल्कुल समान एक समान बिल्कुल स्थिर सिद्धि सोच रखकर योग में स्थित हुआ योग में अपने एक योग योग में स्थित होकर कर्तव्य कर्मों को कर जो तेरा कर्तव्य है कर्म है उसको कर संत ही योग कहलाता है वही तेरा सच्चा योग कहलाया जाएगा संत योग कहलाया जाएगा श्लोक नंबर 48 यही समाप्त होता है
भगवान श्री कृष्ण जी और परमात्मा यही कहते हैं कि सिर्फ तुम अपने कर्म करो कर्म करो फल की इच्छा मत रखो
आपको भागवत गीता का जितना मेरे से हो सका उतना मैं आपको बता पाया हूं तो आपको अच्छा लगे लोग बोलते हैं कि गीता भगवत गीता नहीं गीता नहीं पढ़नी चाहिए इससे दिमाग आदमी का फिर जाता है भ्रमित हो जाता है और वह मतलब ब्रह्मचर्य को अपना लेता है ऐसे कोई बात नहीं है सिर्फ गृहस्ती है इसमें सिर्फ समझाया गया है कि आप परमात्मा में कैसे लीन हो सकते हैं आप भक्ति से कैसे परमात्मा को हो सकते हैं आजकल के जो भोग विलास और जो कमाने में लगे हुए हैं भगवान को भूल जाते हैं सब कुछ मतलब यही इसमें समझाया गया है कि परिवारवाद निडरता निर्बलता शक्ति अशक्त स्वर्ग नर्क सब कुछ के तुम जो सोचकर चलते हो अपनी बुद्धि में कि मुझे मेरे कर्मों में क्या मिलता है तो उसका एक ही उदाहरण है भगवान श्री कृष्ण जी और परमात्मा यही कहते हैं कि सिर्फ तुम अपने कर्म करो कर्म करो फल की इच्छा मत रखो तो मेरा तो कुछ नहीं मेरी अंतरात्मा बोल रही है तो मैं करता जा रहाहूं और मैं पढ़ता जाऊंगा सीताराम राधे कृष्ण सभी श्रोता गणों को सभी के परिवार में खुश रहे अपने माता-पिता की अच्छे से सेवा करें और अपने माता-पिता का ध्यान रखें और सबसे अच्छे से बात करते रहे और अपना सनातन धर्म को अपने भगवान को अपने जिसने हमें इस दुनिया में उतारा है उसको व ना भूले |
अर्जुन को पार्थ क्यों कहते हैं?
गीता में पार्थ का अर्थ क्या है?
श्री कृष्ण ने अर्जुन को क्या उपदेश दिया था?
अर्जुन को पार्थ क्यों कहा गया?
कुंती को पृथा क्यों कहा जाता है?
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