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जिस प्रकार वायु रहित स्थान में स्थित दीपक चलायमान नहीं होता

 जिस प्रकार वायु रहित स्थान में स्थित दीपक चलायमान नहीं होता


जिस प्रकार वायु रहित स्थान में स्थित दीपक चलायमान नहीं होता


सीताराम राधे कृष्ण आशा करते हैं कि आप सब सुख शांति से होंगे आपके घर में सब सुख शांति से होंगे मंगलमय होंगे आप अपने ग्रह जीवन में व्यस्त होंगे अपने माता-पिता की सेवा कर रहे होंगे और परमात्मा को याद कर रहे होंगे | तो कल हमने श्लोक नंबर 18 तक समापन किया था |आज हम श्लोक नंबर अध्याय छ:के श्लोक नंबर 19 से प्रारंभ करेंगे| प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं जिस प्रकार वायु रहित स्थान में स्थित दीपक चलायमान नहीं होता वैसे ही उपमा परमात्मा के ध्यान में लगे हुए योगी के जीते हुए चित्त की कही गई |

 सच्चिदानंदन परमात्मा में ही संतुष्ट रहता है

इसलिए हे अर्जुन योग के अभ्यास निरुद्ध चित्त जिस अवस्था में उपरा हो जाता है और जिस अवस्था में परमात्मा के ध्यान से शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा परमात्मा को साक्षात करता हुआ सच्चिदानंदन परमात्मा में ही संतुष्ट रहता है | हे भारत इंद्रियों से अतीत केवल शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा ग्रहण करने योग्य जो अनंत आनंद है | जिसको जिस अवस्था में अनुभव कर सकते हैं |और जिस अवस्था में स्थित यह योगी परमात्मा के स्वरूप से विचलित होता ही नहीं है|

उससे अधिक दूसरों कुछ भी लाभ नहीं मानता 

 परमात्मा की प्राप्ति रूप जिस लाभ को प्राप्त होकर उससे अधिक दूसरों कुछ भी लाभ नहीं मानता और परमात्मा प्राप्ति रूप में जिस अवस्था में स्थित योगी बड़े भारी दुख से भी चलायमान नहीं होता है | जो दुख रूप संसार के सहयोग से रहित तथा जिसका नाम योग्य है |उसको जानना चाहिए वह योग ना उकता हुए हैं |अर्थात धैर्य और उत्साह युक्त चित्त से निश्चय पूर्वक करना कर्तव्य है | 

परमात्मा के सिवा और कुछ भी चिंतन नहीं करता हो |


हे अर्जुन संकल्प से उत्पन्न होने वाली संपूर्ण कामनाओं को निश रूप से त्याग कर मन के द्वारा इंद्रियों के समुदायों को सभी ओर से भली भाति रोककर क्रम क्रम से अभ्यास करता हुआ उप्रति को प्राप्त हो तथा धैर्य युक्त बुद्धि के द्वारा मन को परमात्मा में स्थित करके परमात्मा के सिवा और कुछ भी चिंतन नहीं करता हो |

क्योंकि जिसका मन भली प्रकार शांत है

 हे भारत यह स्थिर न रहने वाला और चंचल मन जिस शब्दादी विषय के निमती से संसार में विचर है | उस उस विषय से रोककर यानी हटकर इसे बार-बार परमात्मा ही निरुद्ध करें क्योंकि जिसका मन भली प्रकार शांत है | और पाप से रहित है और जिसका रजोगुण शांत हो गया है ऐसे इस सच्चिदानंदन ब्रह्मा के साथ एक ही भाव से हुए योगी को उत्तम आनंद प्राप्त होता है वह पाप रहित योगी इस प्रकार निरंतर आत्मा को परमात्मा में लगाता हुआ सुख पूर्वक परम ब्रह्मा परमात्मा की प्राप्ति अनंत आनंद का अनुभव करता हुआ है| 


और संपूर्ण भूतों को मुझ वासुदेव केअंतर्गत देखता है 

 अनंत चेतन में एक ही भाव से स्थिति रूप योग से युक्त आत्मा वाला तथा सब में समाम भाव से देखने वाला योगी आत्मा को संपूर्ण भूतों में स्थित और संपूर्ण भूतों को आत्मा में कल्पित देखता है जो पुरुष संपूर्ण भूतों में सबके आत्मा रूप मुझको वासुदेव को ही व्यापक देखता है|और संपूर्ण भूतों को मुझ वासुदेव केअंतर्गत देखता है उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता है |जो पुरुष एक भाव से ही स्थित होकर संपूर्ण भूतों में आत्मा रूप से स्थित मुझ सच्चिदानंदन वासुदेव को भजता है |वह योगी सब प्रकार से बरता हुआ भी मुझ में ही बरता है | चाहे व किसी भी प्रकार से बरता है | वह सच्चिदानंदन वासुदेवाय कृष्ण को ही भजता रहेगा |


हे मधुसूदन जो यह योग अपने सम भाव से कहा है

 हे अर्जुन जो योगी अपनी भाति संपूर्ण भूतों में सम देखता है और सुख अथवा दुख को भी सब में सम देखता है समान देखता है वह योगी परम श्रेष्ठ माना जाता है |अर्जुन बोले हे मधुसूदन जो यह योग अपने सम भाव से कहा है मन के चंचल होने से मैं इसकी नित्य स्थिति को नहीं देख पा रहा हूं |क्योंकि हे कृष्ण यह मन बड़ा चंचल है |प्रथम सन स्वभाव वाला बड़ा दृढ़ और बलवान है| इसलिए उसको वश में करना मैं वायु को रोकने की भाति अत्यंत दुष्का मानता हूं | उसको रोका नहीं जा सकता |




हे महाबाहु निसंदेह मन चंचल और कठिन से बस में होने वाला है


भगवान श्री कृष्ण बोले हे महाबाहु निसंदेह मन चंचल और कठिन से बस में होने वाला है परंतु हे कुंती पुत्र अर्जुन यह अभ्यास और वैराग्य से बस में होता है |जिसका मन वश में किया हुआ नहीं है |ऐसे पुरुष द्वारा योग दुस प्राय है और वश में किए हुए मन वाले प्रयत्नशील पुरुष द्वारा साधन से उसको प्राप्त होना सहज है यह मेरा मत है यह मेरा मानना है |अर्जुन बोले हे श्री कृष्ण जो योग में श्रद्धा रखने वाला किंतु संयमी नहीं है इस कारण जिसका मन अंतकाल में योग से विचलित हो जाता है |ऐसे साधक योग की सिद्धि को अर्थात भगवत साक्षात्कार को ना प्राप्त होकर किस गति को प्राप्त होते हैं हे महाबाहु हे कुंती पुत्र क्या वह भगवत प्राप्ति के मार्ग में मोहित और आश्रय रहित पु छिन्न छिन्न बादल की भाति दोनों ओर से भ्रष्ट होकर नष्ट तो नहीं हो जाता है |

मेरे इस संशय को संपूर्ण रूप से छेदन करने के लिए आप ही योग्य है


 हे श्री कृष्ण मेरे इस संशय को संपूर्ण रूप से छेदन करने के लिए आप ही योग्य है आप ही मुझे समझा सकते हैं |क्योंकि आपके सिवा दूसरा इसका संशय इसका छेदन संक्षेप विश्लेषण करने वाला मिलना इस संसार में तो संभव नहीं है |श्लोक नंबर 39 तक आज हम यहीं पर समापन करते हैं |कल फिर श्लोक नंबर 40 से प्रारंभ करेंगे अतः भगवान आपसे भगवान से प्रार्थना करते हैं कि आप अपने घर में सुख शांति से बने रहे अपने गृहस्थ जीवन में अच्छे से बने रहे मंगलमय रहे सुख शांति बनी रहे और अपने माता-पिता की सेवा करते रहे सबसे प्यार से बात करें बस यही आशा करते हैं| परमात्मा आप पर अपनी दृष्टि बनाए रखे| सीताराम राधे कृष्ण |



गीता के छठे अध्याय में कितने श्लोक हैं?


अध्याय 18 में कितने श्लोक हैं?


अध्याय 6 श्लोक 5 ध्यान योग में भगवान क्या कहते हैं?


गीता अध्याय 7 के श्लोक 15 में क्या लिखा है?












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