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भगवान श्री कृष्ण बोलते हैं जो भक्त जन अति श्रेष्ठ श्रद्धा से युक्त ?(mujh sagun roop parmeshwer)

 

भगवान श्री कृष्ण बोलते हैं जो भक्त जन अति  श्रेष्ठ श्रद्धा से युक्त ?(mujh sagun roop parmeshwer)

भगवान श्री कृष्ण बोलते हैं जो भक्त जन अति  श्रेष्ठ श्रद्धा से युक्त ?(mujh sagun roop parmeshwer)

अध्याय 12 हम प्रारंभ ?

सीताराम राधे कृष्ण आशा करता हूं, आपके घर में सब शांति से होंगे, आप अपने माता पिता की सेवा कर रहे होंगे| और अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दे रहे होंगे | परमात्मा को याद कर रहे होंगे, तो कल हमने अध्याय 11 का समापन किया था |आज अध्याय 12 हम प्रारंभ करेंगे इसमें अर्जुन बोलते हैं | जो अनन्य प्रेमी भक्त जन पक्त प्रकार से निरंतर आपके भजन ध्यान में लगे रहकर आप सगुण रूप परमेश्वर को और दूसरे जो केवल विनाशी सच्चिदानंदन निराकार ब्रह्मा को ही अति श्रेष्ठ भाव से भजते हैं |उन दोनों प्रकार के उपास कों में अति उत्तम योग वेता कौन है |

मुझ सगुण रूप परमेश्वर को भजते हैं?

 तब भगवान श्री कृष्ण बोलते हैं, मुझ में मन को एकाग्र करके निरंतर मेरे भजन ध्यान में लगे हुए जो भक्त जन अति  श्रेष्ठ श्रद्धा से युक्त होकर मुझ सगुण रूप परमेश्वर को भजते हैं |वे मुझको योगियों में अति उत्तम योगी मान्य है | परंतु जो पुरुष इंद्रियों के समुदाय को भली प्रकार वश में करके  मन बुद्धि से परे सर्वव्यापी स्वरूप और सदा एक रस रहने वाले नित्य अचल निरकारी अविनाशी सच्चिदानंदन ब्रह्मा को निरंतर एक भाव से ही ध्यान करते हुए बसते हैं | वे संपूर्ण भूतों के हित में रत और सब में समान भाव वाले योगी मुझको ही प्राप्त होते हैं |

भक्ति योग से निरंतर चिंतन करते ?

उन सच्चिदानंदन निराकार ब्रह्म में आसक्त चित्त वाले पुरुषों में साधन में परिश्रम विशेष क्योंकि देह अभिमान अभिमान हों के द्वारा अव्यक्त विषयक गति दुख पूर्वक प्राप्त की जाती है |परंतु जो मेरे परायण रहने वाले भक्त जन संपूर्ण कर्मों को मुझ में अर्पण करके मुझ सगुण रूप परमेश्वर को ही अनन्य भक्ति योग से निरंतर चिंतन करते हुए भजते हैं |

इसके उपरांत तू मुझ में ही निवास करेगा?

हे अर्जुन  मुझमें चित्त लगने वाले प्रेमी भक्तों को मैं शीघ्र ही मृत्यु रूप संसार समुद्र से उदार करने वाला होता हूं | मुझ में मन को लगा और मुझ में ही बुद्धि लगा इसके उपरांत तू मुझ में ही निवास करेगा | इसमें कुछ भी संशय नहीं है |यदि तू मन को मुझ में अचल स्थापन करने के लिए सामर्थ्य नहीं है | 

मृत्यु रूप संसार समुद्र से उदार करने ?



तो हे अर्जुन अभ्यास स्वरूप योग के द्वारा मुझको प्राप्त होने के लिए इच्छा कर यदि तू उपयुक्त अभ्यास में भी असमर्थ है || तो केवल मेरे लिए कर्म करने के ही परायण हो जा इस प्रकार मेरे निमित कर्मों को करता हुआ भी मेरी प्राप्ति सिद्धि को ही प्राप्त होगा यदि मेरे प्राप्ति योग के आश्रित होकर उपयुक्त साधन को करने में भी तू असमर्थ है |

मुझे परमेश्वर का स्वरूप का ध्यान श्रेष्ठ है?

तो मन बुद्धि आदि पर विजय प्राप्त करने वाला होकर सब कर्मों को फल का त्याग कर कर्मों को न जानकर किए हुए अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ ज्ञान से मुझे परमेश्वर का स्वरूप का ध्यान श्रेष्ठ है और ध्यान से भी सब कर्मों का फल का त्याग कर श्रेष्ठ है क्योंकि त्याग से तत्काल ही परम शांति होती है जो पुरुष सब भूतों में द्वेष भाव से रहित स्वार्थ रहित सबका प्रेमी हेतु रहित दयालु है तथा ममता से रहित अहंकार से रहित सुख दुखों का प्राप्ति में सम और क्षमावाणी मुझ में दृष्ट निश्चय वाला है वह मुझ में अर्पण किए हुए मन बुद्धि वाला मेरा भक्त मुझको प्रिय है तो आज हम यहीं पर समापन करते हैं 



                                  "सीताराम राधे कृष्ण" 



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