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श्री कृष्ण कहते हैं,परम अक्षर ब्रह्मा है !

             श्री कृष्ण कहते हैं,परम अक्षर ब्रह्मा है!


श्री कृष्ण कहते हैं,परम अक्षर ब्रह्मा है !

 सीताराम राधे कृष्ण आशा करता हूं आपके घर में सब सुख शांति से होंगे मंगलमय होगा |अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दे रहे होंगे |अपने माता पिता की सेवा कर रहे होंगे | तो कल हमने सप्तम अध्याय समाप्त किया था |आज हम अष्टम अध्याय प्रारंभ करेंगे तो इसमें अर्जुन कहते हैं | प्रभु श्री कृष्ण से  पुरुषोत्तम वह ब्रह्म क्या है |अध्यात्म क्या है कर्म क्या है | अधभूत नाम से क्या कहा गया है और अधिदेव किसको कहते हैं,हे मधुसूदन यहां अधिज्ञ कौन है |और वह इस शरीर में कैसे है तथा युक्त चित् वाले पुरुष द्वारा अंत समय में आप किस प्रकार जान जानने में आते हैं |भगवान श्री कृष्ण कहते हैं,परम अक्षर ब्रह्मा है अपना स्वरूप अर्थात जीवात्मा अध्यात्म नाम से कहा जाता है | तथा भूतो को भाव को उत्पन्न करने वाला जो त्याग है |


उत्पत्ति विनाश धर्म वाले सब पदार्थ अधिभूत है

वह कर्म नाम से कहा गया है | उत्पत्ति विनाश धर्म वाले सब पदार्थ अधिभूत है  पुरुष अधिदेव है और हे देहधारियों में श्रेष्ठ अर्जुन इस शरीर में मैं वासुदेव अंतर्यामी रूप से अधि ज्ञ हूं जो पुरुष अंतकाल में भी मुझको ही स्मरण करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है वह मेरे साक्षात स्वरूप को प्राप्त होता है | इसमें कुछ भी संशय नहीं है |

यह मनुष्य अंतकाल में जिस जिस भी भाव को स्मरण करता?

 हे कुंती पुत्रअर्जुन यह मनुष्य अंतकाल में जिस जिस भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीर को त्याग करता है | उस उसको ही प्राप्त होता है क्योंकि वह सदा उसी भाव से भावित रहा है इसलिए हेअर्जुन तू सब समय में निरंतर मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर इस प्रकार मुझ में अर्पण किए हुए मन बुद्धि से युक्त होकर तू निसं है | मुझको ही प्राप्त होगा |

दिव्य पुरुषों को अर्थात परमेश्वर को ही प्राप्त होता है |

हे पार्थ यह नियम है | कि परमेश्वर के ध्यान केअभ्यास रूप योग से युक्त दूसरी ओर न जानने वाले चित्त से निरंतर चिन करता हुआ मनुष्य परम प्रकाश दिव्य पुरुषों को अर्थात परमेश्वर को ही प्राप्त होता है जो पुरुष सर्वज्ञ अनादि सबके नता है |सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म सबके धारण पोषण करने वाला अचिन स्वरूप सूर्य के सदृश्य नित्य चेतन प्रकाश प्रकाश रूप औरअविद्या से अति परे शुद्ध सच्चिदानंदन परमेश्वर का स्मरण करता है वह भक्ति युक्त पुरुष अंतकाल में भी योग बल से भृकुटी के माध्यम से प्राणों को अच्छी प्रकार से स्थापित करके फिर निश्चल मन से स्मरण करता हुआ |उसी दिव्य रूप परम पुरुष परमेश्वर  को प्राप्त होता है |


ब्रह्मचारी लोग ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं |

 वेद के जानने वाले विद्वान जिस सच्चिदानंदन रूप परम पद को अविनाशीकहते हैं | आसक्ति रहित यत्न शल सन्यासी महात्मा जन जिसमें प्रवेश करते हैं और जिस परम पद को चाहने वाला ब्रह्मचारी लोग ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं उस परम पद को मैं तेरे लिए संक्षेप में कहूंगा |सब इंद्रियों के द्वारा को द्वारों को रोक कर तथा मन को हृदय में स्थिर करके फिर से उसे जीते हुए मन के द्वारा प्राण को मस्तिष्क में स्थापित करके परमात्मा संबंधी योग धारण में स्थित होकर जो पुरुष ओम इस अक्षर रूप ब्रह्म को उच्चारण करता हुआ और उसकेअर्थ स्वरूप मुझ मुझ में निर्गुण ब्रह्म का चिंतन करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है |और वह पुरुष परम गति को प्राप्त होताहै |

मुझ में युक्त हुए योगी के लिए मैं सुलभ हूं |


 हे अर्जुन जो पुरुष मुझ में अन्य चित होकर सदा ही निरंतर मुझ पुरुषोत्तम को स्मरण करता है |उस नित्य निरंतर मुझ में युक्त हुए योगी के लिए मैं सुलभ हूं |अर्थात उससे सहज ही प्राप्त हो जाता हूं ,परम सिद्धि को प्राप्त महात्मा जन मुझको होकर दुखों के घर एवं क्षण भंगुर पुनर जन्मों को नहीं प्राप्त होते हैं | 



हे कुंती पुत्र मुझको प्राप्त होकर पुनर्जन्म नहीं होता |

इसलिए हे अर्जुन ब्रह्मलोक पर्यंत सब लोक पुनरावृति है परंतु हे कुंती पुत्र मुझको प्राप्त होकर पुनर्जन्म नहीं होता क्योंकि मैं काला तीत हूं और यह सब ब्रह्मादेवी का अधि वाला और रात्रि को भी 1000 चतुरगति यति तक की अवधि वाला जो पुरुष तत्व से जानते हैं |वे योगी जन काल के तत्व को जानने वाला है |संपूर्ण चराचर भूत गण ब्रह्मा के दिन के प्रवेश काल में अव्यक्त से अर्थात ब्रह्म के सूक्ष्म शरीर के उत्पन्न होते हैं |और ब्रह्म की रात्रि के प्रवेश काल में उस अ व्यक्ति नामक ब्रह्म के सूक्ष्म शरीर में ही लीन हो जाते हैं |

यह भूत समुदाय उत्पन्न हो होकर प्रकृति में बस हुआ |

हे पार्थ वही यह भूत समुदाय उत्पन्न हो होकर प्रकृति में बस हुआ रात्रि के प्रवेश काल में लीन होता है और दिन में प्रवेश काल में फिर उत्पन्न होता है उस अव्यक्त से भी अति परे दूसरा अर्थात विलक्षण जो सनातन अव्यक्त भाव है वह परम दिव्य पुरुष सब भूतों के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता जो अव्यक्त अक्षर इस नाम से गया है उसी अक्षर का नाम अव्यक्त भाव को परम गति कहते हैं तथा जिस सनातन अव्यक्त भाव को प्राप्त होकर मनुष्य वापस नहीं आते |वह मेरे परम धाम है |तो आज के लिए यही समापन श्लोक नंबर 21तक समापन करते हैं | कलअष्टम अध्याय केश्लोक नंबर 22 से हम प्रारंभ करेंगे तो मैं आशा करता हूं | भगवान परमात्मा से प्रार्थना करता हूं ,कि आपका दिन मंगलमय हो ,आप अपने घर में सुख शांति से रहे अपने माता-पिता की सेवा करते रहे |


                                          " सीताराम राधे कृष्ण "



गीता के 8 अध्याय में क्या लिखा गया है?


गीता में अनन्यचेता से क्या आशय है?


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