जो पुरुष केवल मुझको ही निरंतर भजते हैं ,वे ?
जो पुरुष केवल मुझको ही निरंतर भजते हैं ,वे?
सीताराम राधे कृष्ण तो कल हमने अध्याय सात के श्लोक नंबर 13 तक समापन किया था |आज श्लोक नंबर 14 से प्रारंभ करते हैं | तो आशा करता हूं कि आपके घर में सब सुख शांति से होंगे और आप अपने जीवन में व्यस्त होंगे ,अपने माता पिता की सेवा कर रहे होंगे ,और आपका जीवन अच्छे से कटा होगा ,परमात्मा को याद कर रहे होंगे ,तो प्रारंभ करते श्लोक नंबर 14 से प्रभु बोलते हैं "क्योंकि यह अलौकिक अर्थात अति अद्भुत त्रिगुणमय मेरी माया बड़ी दुसर है | परंतु जो पुरुष केवल मुझको ही निरंतर भजते हैं ,वे इस माया को उल्लंघन कर जाते हैं ,अर्थात संसार से तर जाते हैं|
उत्तम कर्म करने वाला आर्थी जिज्ञासु:-
माया के द्वारा जिनका ज्ञान हारा जा चुका है |ऐसे असुर स्वभाव को धारण किए हुए मनुष्य में नीच दूषित कर्म करने वाला मूड लोग मुझको नहीं भज सकता | "हे भरत वंश में श्रेष्ठ अर्जुन उत्तम कर्म करने वाला आर्थी जिज्ञासु और ज्ञानी ऐसे चार प्रकार के भक्त जन मुझको भजते हैं | उनमें नित्य मुझ में एक ही भाव से स्थित अनन्य प्रेम भक्ति वाला ज्ञानी भक्ति भक्त अति उत्तम है |
मैं अत्यंत प्रिय हूं और वह ज्ञानी :-
क्योंकि मुझको तत्व से जानने वाला ज्ञानी को ही , मैं अत्यंत प्रिय हूं और वह ज्ञानी मुझे अत्यंत प्रिय है | यह सभी उदार परंतु ज्ञानी तो साक्षात में स्वरूप ही है ,ऐसा मेरा मत है , क्योंकि वह मदगर मन बुद्धि वाला ज्ञानी भक्त अति उत्तम गति स्वरूप मुझ में ही अच्छी प्रकार से स्थित होता है |बहुत जन्मों के अंत के जन्म में तत्व ज्ञान को प्राप्त पुरुष सब कुछ वासुदेव ही है | इस प्रकार मुझको भजता है |,
कामना द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है :-
वह आत्मा अत्यंत दुर्लभ है, उन उन भोगों को कामना द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है , वे लोग अपने स्वभाव से प्रेरित होकर उस उस नियम को धारण करके अन्य देवताओं को बचते हैं |अर्थात पूछते हैं जो जो सकाम भक्त जिस जिस देवता के स्वरूप को श्रद्धा से पूजना चाहता है |उस उस भक्त की श्रद्धा को मैं उसी देवता के प्रति स्थिर करता हूं , वह पुरुष उस श्रद्धा से युक्त होकर उस देवता का पूजन करता है |और उस देवता से मेरे द्वारा ही विधान किए हुए उन इच्छित भोगों को निसंदेह प्राप्त करता है |
अल्प बुद्धि वाले का फल नाशवान है :-
परंतु उन अल्प बुद्धि वाले का फल नाशवान है |तथा वे देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं , और मेरे भक्त चाहे जैसे ही भजे अंत में वे मुझे ही प्राप्त होते हैं |बुद्धिहीन पुरुष मेरे अनुत्तम अविनाशी परम भाव को ना जानते हुए मन इंद्रियों से परे मुझे सच्चिदानंदन परमात्मा के मनुष्य की भाति जन्म कर व्यक्ति भाव को प्राप्त हुआ मानते हैं | अपनी योग माया से छुपा हुआ मैं सबके प्रत्यक्ष नहीं होता |
मुझ जन्म रहित अविनाशी परमेश्वर को नहीं जानता :-
,इसलिए यह अज्ञानी जन समुदाय मुझ जन्म रहित अविनाशी परमेश्वर को नहीं जानता अर्थात मुझको जन्म न मरने वाला समझता है | हे अर्जुन पूर्व में व्यतीत हुए और वर्तमान में स्थित तथा आगे होने वाले सब भूतों को मैं जानता हूं ,परंतु मुझको कोई भी श्रद्धा और भक्ति रहित पुरुष नहीं जानता |
संसार में इच्छा और द्वेष से उत्पन्न सुख दुख :-
हे भरत वंशी अर्जुन संसार में इच्छा और द्वेष से उत्पन्न सुख दुख आदि द्वंद रूप मोह से संपूर्ण प्राणी अत्यंत अज्ञाता को प्राप्त हो रहे हैं | परंतु निष्काम भाव से श्रेष्ठ कर्मों का आचरण करने वाले जिन पुरुषों का पाप नष्ट हो गया है | वे राग द्वेष जनित द्वंद रूप मोह से मुक्त दण निश्चय भक्ति मु को सब प्रकार से बचते हैं |हे अर्जुन जो मेरी शरण में होकर जरा और मरण से छूटने के लिए यत्न करते हैं | वे पुरुष उस ब्रह्मा को संपूर्ण अध्यात्म को संपूर्ण कर्मों को जानते हैं |
वे युक्त चित्त वाले पुरुष मुझे जानते हैं:-
जो पुरुष अधिभूत और अधिदेव के सहित तथा अधि यज्ञ के सहित सबका आत्म रूप मुझ के मुझ में अंत काल में भी जानते हैं | वे युक्त चित्त वाले पुरुष मुझे जानते हैं ,अर्थात प्राप्त हो जाते हैं ,सप्तम अध्याय यही समाप्त होता है ,तो आज के लिए यही समापन करते हैं ,कल अष्टम अध्याय से प्रारंभ करेंगे तो अभी भगवान से यही प्रार्थना करता हूं | कि आप खुश रहे सुखी रहे आपका गृहस्थ जीवन सुख रहे |अपने आपके माता-पिता खुश रहे आपके बच्चे स्वस्थ रहे और आप परमात्मा को याद करते रहे सब मंगलमय हो इसी के साथ आपसे कल मुलाकात होगी |
"सीताराम राधे कृष्ण"
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