अध्याय 11 श्लोक 43 (virat roop tujhko dikhlaya) ?
अध्याय 11 श्लोक 43 (virat roop tujhko dikhlaya) ?
आप इस चराचर जगत के पिता !
सीताराम राधे कृष्ण आशा करता हूं, आपके घर में सब सुख शांति से होंगे, आप अपने माता पिता की सेवा कर रहे होंगे, अपने जीवन में व्यस्त होंगे, और अपने बच्चों की अच्छी शिक्षा दे रहे होंगे, परमात्मा को याद कर रहे होंगे, तो कल हमने अध्याय 11 के श्लोक नंबर 42 तक समापन किया था |आज श्लोक नंबर 43 से आरंभ करेंगे |"अर्जुन" आप इस चराचर जगत के पिता और सबसे बड़े गुरु एवं अति पूजने है |
हे देव पिता जैसे पुत्र के सखा !
हे" अनुपम प्रभाव वाले तीनों लोकों में आपके समान भी कोई दूसरा नहीं है| भी अधिक तो कैसे हो सकता है| अत हे प्रभु मैं शरीर को भली बाती चरणों में निवेदित कर प्रणाम करके स्तुति करने योग्य आप ईश्वर को प्रसन्न होने के लिए प्रार्थना करता हूं, हे देव पिता जैसे पुत्र के सखा जैसे सखा के और पति जैसे प्रियतमा पत्नी के अपराध सहन करते हैं |वैसे ही आप भी मेरे अपराध को सहन करने योग्य है | मैं पहले न देख देखे हुए आपके इस आश्चर्य में रूप को देखकर हर्षित हो रहा हूं, और मेरा मन भय से अति व्याकुल भी हो रहा है | इसलिए आप उस अपने चतुर्भुज विष्णु रूप को ही मुझे दिखलाइए |
मैंने अपने योग्य शक्ति !
हे देवेश, हे जिग्नेश प्रसन्न होइए मैं वैसे ही आपको मुकुट धारण किए हुए तथा गदा और चक्र हाथ में लिए हुए देखना चाहता हूं | इसलिए हे" विश्व स्वरूप, हे सहस्त्र भाव आप उसी चतुर्भुज रूप से प्रकट होइए |श्री भगवान बोले हे अर्जुन अनुग्रह पूर्वक मैंने अपने योग्य शक्ति के प्रभाव से यह मेरा परम तेजो में सबका आदि और सीमा रहित विराट रूप तुझको दिखलाया है | जिसे तेरे अतिरिक्त दूसरे किसी ने पहले नहीं देखा था |
हे अपने चतुर्भुज रूप को दिखलाया है !
अर्जुन मनुष्य लोक में इस प्रकार विश्व स्वरूप वाला मैं न वेद और यज्ञों के अध्ययन से न दान से न क्रियाओ से और न उग्र से तपों से ही तेरे अतिरिक्त दूसरे द्वारा देखा जा सकता हूं, मेरे इस प्रकार के इस विकराल रूप को देखकर तुझको व्याकुलता नहीं होनी चाहिए और मूड भाव भी नहीं होना चाहिए, तू भय रहित और प्रतियुक्त मान मन वाला होकर उसी मेरे इस शंख ,चक्र, गदा, पदायुक्त चतुर्भुज रूप को फिर से देख |"संजय बोले" वासुदेव भगवान ने अर्जुन के प्रति इस प्रकार कहकर फिर वैसे ही अपने चतुर्भुज रूप को दिखलाया है |और फिर महात्मा श्री कृष्ण ने सौम्य मूर्ति होकर इस अर्जुन को धीरज दिया |
देवता भी सदा इस रूप के दर्शन की आकांक्षा करते ?
मेरे परायण है मेरा भक्त है !
परंतु हे परम तप अर्जुन अन्य भक्ति के द्वारा इस प्रकार चतुर्भुज रूप वाला मैं प्रत्यक्ष देखने के लिए तत्व से जानने के लिए तथा प्रवेश करने के लिए अर्थात एक ही भाव से प्राप्त होने के लिए भी मैं शक्य हू | हे अर्जुन जो पुरुष केवल मेरे ही लिए संपूर्ण कर्तव्य कर्मों को करने वाला है मेरे परायण है मेरा भक्त है | आसक्ति रहित है और संपूर्ण भूत प्रा में वैर भाव से रहित है वह अनन्य भक्ति युक्त पुरुष मुझको ही प्राप्त होता है तो आज के लिए आपसे यहीं पर विदा लेते हैं | अध्याय 11 समापन किया है कल अध्याय 12 हम प्रारंभ करेंगे |
"सीताराम राधे कृष्ण"
गीता के 11 अध्याय में क्या लिखा हुआ है?
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन किस अध्याय में है?
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