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इस देह में यह सनातन जीवात्मा मेरा हीअंश है|(pancho indriyo ka aakarshan)

 इस देह में यह सनातन जीवात्मा मेरा हीअंश है|(pancho indriyo ka aakarshan)

इस देह में यह सनातन जीवात्मा मेरा हीअंश है|(pancho indriyo ka aakarshan)

सीताराम राधे कृष्ण आशा करता हूं आपके घर में सब शांति से होंगे आप माता पिता की सेवा कर रहे होंगे तो कल हमनेअध्याय 15 के श्लोक नंबर चार तक समापन किया था आज श्लोक नंबर पाच से प्रारंभ करेंगे |भगवान श्री कृष्ण" बोलते हैं इस प्रकार निश्चय करके उस परमेश्वर का मनन और  निद आसन करना चाहिए जिसका मान और मोह नष्ट हो गया है जिन्होंने आसक्ति रूप दोष को जीत लिया है | 


मनुष्य लौटकर संसार में नहीं आते?

जिनकी परमात्मा के स्वरूप में नित्य स्थिति है और जिनकी कामनाएं पूर्ण रूप से नष्ट हो गई है वे सुख दुख नामक द्वंद से विमुक्त ज्ञानी जन उस अविनाशी परम पद को प्राप्त होते हैं जिस परम पद को प्राप्त होकर मनुष्य लौटकर संसार में नहीं आते उस स्वयं प्रकाश परमपद को ना सूर्य प्रकाशित कर सकता है ना चंद्रमा और ना अग्नि ही वह मेरी परम धाम है|


जिस  शरीर को प्राप्त होता है?

इस देह में यह सनातन जीवात्मा मेरा हीअंश है और वही इन प्रकृति में स्थित मन और पांचों इंद्रियों को आकर्षण करता है वायु गंध के स्थान पर गंध को जैसे ग्रहण करके ले जाता है वैसे ही देह आदि का स्वामी जीवात्मा भी शरीर जिस शरीर का त्याग करता है उसे उससे इन मन सहित इंद्रियों को ग्रहण करके फिर जिस  शरीर को प्राप्त होता है उसमें जाता है |

हृदय में स्थित इस आत्मा को तत्व से जानते हैं?

यह जीवात्मा शोत्र चक्षु और त्वचा को तथा रसना और घृणा और मन को आश्रय करके अर्थात इन सब के सहारे से ही विष का सेवन करता है शरीर को छोड़कर जाते हुए को अथवा शरीर में स्थित हुए को अथवा विषयों को भोगते हुए को इस प्रकार तीनों गुणों से युक्त हुए को भी अज्ञानी जन नहीं जानते केवल ज्ञान रूप नेत्रों वाले विकासशील विवेकशील ज्ञान ज्ञानी ही तत्व से जानते हैं यत्न करने वाले योगी जन भी अपने हृदय में स्थित इस आत्मा को तत्व से जानते हैं किंतु जिन्होंने अपने अंतक को शुद्ध नहीं किया है|

इस आत्मा को नहीं जानते हैं?

 ऐसे अज्ञानी जन तो यत्न करते रहने पर भी इस आत्मा को नहीं जानते हैं सूर्य में स्थित जो तेज संपूर्ण जगत को प्रकाशित करता है तथा जो तेज चंद्रमा में है और जो अग्नि में है उसको तू मेरे ही तेज जान और मैं मैं ही पृथ्वी में प्रवेश करके अपनी शक्तियों से सब भूतों को धारण करता हूं और रस स्वरूप अर्थात अमृत में चंद्रमा होकर संपूर्ण हस्तियों को अर्थात वनस्पतियों को पुष्ट करता हूं |

मैं सब प्राणियों में शरीर में स्थित रहने वाला प्राण ?



मैं सब प्राणियों में शरीर में स्थित रहने वाला प्राण और आपन से युक्त बैसवार अग्नि रूप हो अग्नि रूप होकर चार प्रकार से अन्न को बचाता हूं मैं ही सब प्राणियों के हृदय में अंतर्यामी रूप से स्थित हूं तथा मुझसे ही स्मृति ज्ञान और अपोहन होता है और सब वेदों द्वारा मैं ही जानने योग्य हूं और वेदांत का कर्ता और वेदों का जानने वाला भी मैं ही हूं|

यह दो प्रकार से पुरुष है?

 इस प्रकार इस संसार में नाशवान और अविनाशी भी यह दो प्रकार से पुरुष है इनमें संपूर्ण भूत प्राणियों के शरीर तो नाशवान और जीवात्मा अविनाशी कहा जाता है इन दोनों में से उत्तम पुरुष तो अन्य ही है जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण पोषण करता है एवं अविनाशी परमेश्वर और परमात्मा इस प्रकार कहा गया है तो आज के लिए हम अध्याय 15 के श्लोक नंबर 13 पर यहीं पर समापन करते हैं 


                               "सीताराम राधे कृष्ण"


 

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