श्रीमद् भगवत गीता
श्रीमद् भगवत गीता |
जय श्री कृष्णा मैं आपको आज श्रीमद् भगवत गीता का एक अध्याय | श्रीमद् भगवत गीता यह श्री कृष्ण जी ने अर्जुन को उपदेश दिए दे थे |अभी इसमें जीवन का सारा चक्र लिखा हुआ है इंसान का जन्म होता है व्याधि होती है वृद्ध अवस्था जरा होता है अति जरजर बिल्कुल वृद्ध अवस्था जो चलने लायक ना हो उसके बाद मृत्यु हो जाती है यह एक जीवन चक्र है जीवन चक्र मतलब अगर सरल भाषा में समझाया जाए तो हम जिस लोक में रहते हैं
जन्म मृत्यु के मरण से इस जीवन चक्र से मुक्ति मिल जाती है
पृथ्वी में वो एक स्कूल है पाठशाला भी बोल सकते हैं क्योंकि हम लोग एक जीवा आत्मा है तो भगवान हमारे को स्कूल में भेजते हैं कि कौन अच्छी पढ़ाई करता है कौन अच्छा ज्ञान प्राप्त करता है तो उसको भव सागर का पार मिलता है उसको दोबारा जन्म मृत्यु के मरण से इस जीवन चक्र से मुक्ति मिल जाती है यह देख लीजिए ये ठीक है श्रीमद भगवत गीता मोटे अक्षर वाली त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बंधु च सखा त्वमेव त्वमेव विद्या े तमेव सर्व मव देव देव श्री गीता जी की महिमा वास्तव में श्रीमद् भगवत गीता का महा महा तव्य वाणी द्वारा वर्णन करने के लिए किसी की भी सामर्थ्य नहीं है क्यों यह एक परम रहस्यमय ग्रंथ है
प्रतिदिन नए-नए भाव उत्पन्न होते रहते हैं
इसमें संपूर्ण वेदों का सार सार संग्रह किया गया है की संस्कृति सुंदर और सरल है कि थोड़ा अभ्यास करने से मनुष्य को सहज ही समझ सकता है परंतु इसका आशय इतना गंभीर है कि आजीवन निरंतर अभ्यास करते रहने पर भी उसका अंत नहीं आता प्रतिदिन नए-नए भाव उत्पन्न होते रहते हैं इससे यह सदैव नवीन बना रहता है एक एवं एकाग्र चित होकर श्रद्धा भक्ति सहित विचार करने से इसके पद में परम रहस्य भरा हुआ है प्रत्यक्ष प्रतीत होता है भगवान के गुण प्रभाव और मर्म का वर्णन इस प्रकार किया गीता शास्त्रों में किया गया है वैसे वैसा अन्य ग्रंथों में मिलना कठिन है क्योंकि प्राय ग्रंथों में कुछ ना कुछ सांसारिक विषय मिलता मिला रहता है भगवान ने श्रीमद् भागवत गीता रूप एक ऐसे अनुपम शास्त्र कहा है कि जिसमें एक भी शब्द सदु उपदेश से खाली नहीं है
अंतकारण में धारण कर लेना मुख्य कर्तव्य है
श्री वेदव्यास जी ने महाभारत में गीता जी का वर्णन करने के उपरांत कहा है गीता सुगीता कर्तव्य कि मन्य शास्त्र वितरे या स्व में पदान भ्य मुख पदानी सुता इसका अर्थ है गीता सुगीता करने योग्य है अर्थात श्री गीता जी को भली प्रकार पढ़ने अर्थ और भाव सहित अंतकारण में धारण कर लेना मुख्य कर्तव्य है जो के स्वम पदमपदमनाभ भगवान श्री विष्णु के मुख बिंदु से निकली हुई है फिर अन्य शास्त्रों के विस्तार से क्या प्रायोजन स्वयं श्री भगवान ने भी इस प्रकार महात्मा के वर्ण किया है अष्ट 18 श्लोक 68 से 71 तक इस गीता शास्त्र में मनुष्य मात्र का अधिकार है चाहे वह किसी भी प्रवण आश्रम से आश्रम में स्थित हो परंतु भगवान में श्रद्धालु भक्ति युक्त अवश्य हो होना चाहिए|
पाप योनि भी मेरे पराण होकर परम गति प्राप्त होते हैं
क्योंकि भगवान ने अपने भक्तों में ही इसका प्रचार करने के लिए आज्ञा दी है तथा यह भी कहा है कि स्त्री वैश्य शूद्र और पाप योनि भी मेरे पराण होकर परम गति प्राप्त होते हैं श्लोक नंबर एक अध्याय नंबर एक श्लोक नंबर 32 अपने अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा मेरी पूजा करके मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त होते हैं अध्याय 18 श्लोक 46 इन सब पर विचार करने से यही ज्ञात होता है कि परमात्मा की प्राप्ति सभी का अधिकार है परंतु उक्त विषय के मर्म को न समझने के का बहुत से मनुष्य जिन्होंने अति दुर्लभ मनुष्य शरीर को प्राप्त होकर अपने अमूल्य समय का एक क्षण भी दुख मूलक क्षण भंर भोगों के भोगने में नष्ट करने में उचित नहीं हैगीता में भगवान ने अपनी प्राप्ति के लिए मुख्य दो मार्ग बतलाए हैं एक संख्या योग दूसरा कर्म योग उनके संपूर्ण पदार्थ मर्ग तृष्ण के जाल की भवति भाति अथवा अथवा स्वप्न की सृष्टि के सदृश्य माया में होने से माय के कार्य रूप में संपूर्ण गुण ही गुण में वर्तते हैं
सच्चिदानंदन परमात्मा के स्वरूप में एक भाव से
ऐसे समझ कर मन इंद्रिया और शरीर द्वारा होने वाले संपूर्ण कर्मों में कताप के अभिमान से रहित होना | सच्चिदानंदन परमात्मा के स्वरूप में एक भाव से एक ही भाव से नित्य स्थिति रहते हुए एक सच्चिदानंद वासुदेव सिवाय अन्य किसी के भी होने का भाव ना रहना यह तो संख्या योग का साधन है तथा नंबर दो सब कुछ भगवान का समझकर सिद्धि असि में समत्व भाव रखते हुए अक्ति और फल की इच्छा का त्याग कर भगवान के लिए ही सब कर्मों का आचरण | अध्याय दो श्लोक नंबर 48 श्रद्धा भक्ति पूर्वक मन वाणी और शरीर से सब प्रकार भगवान के के शरण होकर नाम गुण और प्रभाव सहित उनके स्वरूप का निरंतर चिंतन करना चाहिए |
भेद होने के कारण दोनों मार्ग भिन्न-भिन्न बतलाए गए हैं
अध्याय छ श्लोक 47 यह कर्म योग का साधन है उक्त दोनों साधनों का प्रमाण उक्त दोनों साधनों का प्रमाण एक होने के कारण वास्तव में अभिन्न माने गए हैं | अध्याय चार अध्याय पाच श्लोक चार और पाच परंतु साधन काल में अधिकारी भेद से दोनों का भेद होने के कारण दोनों मार्ग भिन्न-भिन्न बतलाए गए हैं| अध्याय तीन श्लोक नंबर तीन इसलिए एक पुरुष दोनों मार्गों द्वारा एक काल में नहीं चल सकता |जैसे श्री गंगा जी पर जाने के लिए दो मार्ग होते हुए भी एक मनुष्य दोनों मार्गों द्वारा एक काल में नहीं जा सकता |
कर्म योग का साधन सन्यासआश्रम में नहीं
उक्त साधनों में कर्म योग का साधन सन्यासआश्रम में नहीं बन सकता |क्योंकि सन्यासआश्रम में कार्म को स्वरूप से भी त्याग कहा गया है| और संख्या योग का साधन भी बना सकता है ख्या योग को कठिन बतलाया है अध्याय 5 श्लोक नंबर 6 तथा कर्म योग साधन में सुगम होने के कारण अर्जुन के प्रति जगह-जगह कहा है कि तू निरंतर मेरा चिंतन करता हुआ कर्मयोग का आचरण कर|
जिनकीआकृति अतिशय शांत है
|जिनकीआकृति अतिशय शांत है जो शेषनाग की सया पर करते हुए हैं जिनकी नाभी कम जिनकी नाभि में कमल है जो देवताओं के भी ईश्वर हैं और संपूर्ण जगत के आधार हैं जो आकाश के सदृश्य सर्वत्र व्याप्त है नील मेघ के समान जिनका वर्ण है अतिशय सुंदर जिनके संपूर्ण अंग हैं |जो योगी योग द्वारा ध्यान करके प्राप्त किए जाते हैं जो संपूर्ण लोकों के स्वामी हैं जो जन्म मरण रूप भाई का नाश करने वाले हैं ऐसे लक्ष्मीपति कमल नेत्र भगवान विष्णु को मैं शिर से प्रणाम करता हूं | रुद्र और मरुद गण दिव्य सोत्र द्वारा जिनकी स्तुति करते हैं
जगतगुरु श्री कृष्ण जी की मैं वंदना करता हूं
सामवेद के गाने वाले अंग पद क्रम और उपनिषदों के सहित वेदों द्वारा जिनका गान करते हैं योगी जन दिन ध्यान से स्थिति तद गत हुए मन से जिनका दर्शन करते हैं देवता और असुर गण कोई भी जिनके अंत को नहीं जानते हैं उन परम पुरुष नारायण देव के लिए मेरा नमस्कार है जगतगुरु श्री कृष्ण जी की मैं वंदना करता हूं| आज का अध्याय यही समाप्त होता है जय श्री कृष्णा जय श्री राम
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